जीतने की जिद
जीतने की जिद पर मैं , कुछ यूं अड़ी थी ।
हार रही थी बार-बार पर , हार नहीं मान रही थी ।
तोडा भी गया और मैं टूट भी रही थी।
पर मैं फिर से सिमटकर हर बार खड़ी हो रही थी।
हां मैं जीतने की जिद पर अड़ी थी।
मेरे सपनों की शर्त पर अपने छूट रहे थे।
मैं फिर भी डटी रही अपनी जंग मैं यूं लड़ रही थी।
हां मैं जीतने की जिद पर अड़ी थी।
संघर्ष का दौर था मैं कोशिश में लगी थी।
अपनी हर हार का ठीकरा खुद को दे रही थी।
हां में जीतने की जिद पर अड़ी थी।
मेरे सपनों को मैं खुली आंखों में जी रही थी।
हर दिन मैं मेरी कोशिश को आंक रही थी।
हां , मैं जीतने की जिद पर अड़ी थी।
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